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बीए सेमेस्टर-2 - अर्थशास्त्र-समष्टि अर्थशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2023
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 2714
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-2 - अर्थशास्त्र-समष्टि अर्थशास्त्र

अध्याय - 9
उपभोग फलन
(Consumption Function)

उपभोग प्रवृत्ति अथवा उपभोग क्रिया का तात्पर्य कुल उपभोग व्यय से लगाया जाता है। केवल उपभोग की मात्रा से नहीं। इसका सम्बन्ध आय के विभिन्न स्तरों से होता है। सामान्यतः यह देखा जाता है कि जब राष्ट्रीय आय अधिक होती है तब माँग भी अधिक होती है जिसके कारण उपभोग व्यय भी अधिक होता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि उपभोग आय पर निर्भर करता है। स्पष्टतः उपभोग आय का फलन होता है जिसे सूत्र रूप में c = f (y) से प्रदर्शित किया जाता है। यद्यपि आय में वृद्धि होने पर उपभोग में भी वृद्धि होती है परन्तु उपभोग में आय की अपेक्षा कुछ कम वृद्धि होती है। यह प्रवृत्ति उपभोग तथा आय के मध्य कार्यात्मकता को व्यक्त करती है। इस प्रकार से जो आय उपभोग पर व्यय न करके बचा ली जाती है वह बचत कहलाती है। यहाँ पर उपभोग में वृद्धि का आय की वृद्धि से जो सम्बन्ध होता है वही अनुपात उपभोग की सीमान्त प्रवृत्ति कहलाती है जिसे सूत्र MPC = c/y से दर्शाया जाता है। औसत उपभोग प्रवृत्ति कुल उपभोग का कुल आय से अनुपात प्रकट करती हैं। आय बढ़ने के साथ- साथ उपभोग में वृद्धि का अनुपात कम होता जाता है तथा बचत प्रवृत्ति अनुपात बढ़ती जाती है सूत्र PC = C/Y से दिखाया जाता है। उपभोग क्रिया का अर्थव्यवस्था में व्यापक महत्व है। विनियोग, पूँजी सीमान्त क्षमता की गिरती हुई प्रवृत्ति, व्यापार चक्र तथा आधी बचत एवं न्यून विनियोग के परिणामों पर इसका व्यापक प्रभाव पड़ता है। प्रो. जेम्स टाविन ने कीन्स की परिकल्पना के विश्लेषण के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि आय तथा उपभोग के बीच अल्पकाल में आनुपातिक सम्बन्ध नहीं होता है। ऐसा मुख्यतः परिसम्पत्तियों की मात्रा, नई उपभोग की वस्तुओं, शहरीकरण की प्रवृत्ति तथा जनसंख्या में वृद्धि के अनुपात में वृद्धि के कारण होता है। इस संदर्भ में सापेक्ष आय की परिकल्पना को प्रो. जेम्स डूसनबरी ने विकसित किया है। इन्होंने कीन्स के उपभोग सिद्धान्त का खण्डन करते हुए दो बातों का स्पष्टीकरण किया। प्रथम सापेक्ष आय परिकल्पना इस मान्यता पर आधारित हैं कि व्यक्ति उपभोग स्तर पर अपनी आय के साथ-साथ पास-पड़ोस के लोगों के उपभोग व्यय को भी प्रभावित करता है। इसे ही प्रो. डूसनबरी ने उपभोग ढाँचे का सामाजिक चरित्र कहा है। द्वितीय - प्रो. डूसनबरी ने कीन्स के इस विचार का भी विरोध किया कि उपभोग सम्बन्ध प्रतिवर्ती होते हैं। स्थायी आय की परिकल्पना प्रो. मीडमैन की देन है। वस्तुतः स्थायी आय का तात्पर्य उस आय से होता है जिससे कोई उपभोक्ता सम्पत्ति को अक्षुण्ण रखते हुए उपभोग कर सकता है जबकि चालू आय स्थायी भाव से कम या अधिक हो सकती हैं। यह अन्तर वास्तव में स्थायी आय की प्रकृति के कारण होता है और जब अस्थायी आय होती है तब आकस्मिक लाभ अथवा चक्रीय परिवर्तन होता है। जीवन चक्र परिकल्पना का प्रतिपादन प्रो. एण्डो तथा गाडिक्लियानी ने किया जिनकी यह मान्यता थी कि उपभोग, उपभोक्ता की सम्पूर्ण जीवनकाल की प्रत्याशित आय का फल है। इस प्रकार आय के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिकल्पना है और अर्थव्यवस्था में इसका व्यापक महत्व है।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • उपभोग क्रिया अथवा उपभोग प्रवृत्ति का तात्पर्य कुल उपभोग व्यय से लगाया जाता है न कि केवल उपभोग की इच्छा मात्र से।
  • उपभोग प्रवृत्ति (फलन) का संबंध आय के विभिन्न स्तरों से होता है।
  • सामान्यतया यह देखा जाता है कि जब राष्ट्रीय आय अधिक होती है तब माँग भी अधिक होती है जिसके परिणामस्वरूप उपभोग व्यय भी अधिक होता है।
  • उपभोग आय का फलन है जिसे निम्न सूत्र द्वारा व्यक्त किया जाता है c = f (y)।
  • आय में वृद्धि होने पर उपभोग में भी वृद्धि होती है लेकिन उपभोग में आय की अपेक्षा कुछ कम वृद्धि होती है।
  • प्रो. कीन्स ने उपभोग फलन की धारणा के संबंध में यह बताया है कि बेरोजगारी को दूर करने के लिए विनियोगों की अधिक व्यवस्था की जानी चाहिए।
  • प्रो. से ने अपने बाजार नियम में कहा है कि "पूर्ति स्वयं अपनी माँग का सृजन करती है। प्रो. कीन्स ने इस धारणा का खण्डन करते हुए कहा है कि यदि माँग में कमी आ जाये तो बेरोजगारी की स्थिति निश्चित रूप से उत्पन्न होगी।
  • समृद्धि की स्थिति प्रभावपूर्ण मांग, आय में वृद्धि तथा रोजगार के कारण उत्पन्न होती है।
  • यदि प्रभावपूर्ण मांग में कमी होने लगे तो अवसाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, परिणामस्वरूप अर्थव्यवस्था का पतन होने लगता है।
  • प्रो. कीन्स द्वारा प्रतिपादित आय उपभोग के विश्लेषण को निरपेक्ष आय परिकल्पना के नाम से जाना जाता है जिसमें आय उपभोग के बीच आनुपातिक संबंध नहीं रहता है।
  • - आर्थर स्मिथिज एवं प्रो. जेम्स राबिन ने निरपेक्ष आय परिकल्पना की जाँच के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला हैं कि आय और उपभोग के बीच अल्पकाल में आनुपातिक संबंध नहीं होता है। प्रो. राबिन ने बजट के अध्ययन में परिसम्पत्तियों को शामिल किया और इस अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि परिसम्पत्तियों की मात्रा में वृद्धि होने पर परिवारों की उपभोग प्रवृत्ति में वृद्धि होती है फलस्वरूप उपभोग क्रिया ऊपर की ओर उठती है।
  • प्रायः विश्व के कई देशों में पिछले कई वर्षों से उपभोग संस्कृति का विकास हो रहा है एवं पारिवारिक उपभोग की नयी वस्तुएं अस्तित्व में आयी हैं।
  • प्रो. जेम्स डूसनबरी ने सापेक्ष आय परिकल्पना को विकसित किया।
  • डूसनबरी ने प्रो. कीन्स के उपभोग सिद्धांत का खण्डन करते हुए दो बातों को स्पष्ट रूप से व्यक्त किया है—
    (i) प्रत्येक व्यक्ति का उपभोक्ता व्यवहार स्वतंत्र नहीं है बल्कि एक दूसरे पर निर्भर है।
    (ii) समयान्तराल में उपभोग प्रतिवर्ती नहीं होता है।
  • प्रो. मिल्टन फीडमैन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक 'A Theory of Consumption function' में स्थायी परिकल्पना का सिद्धान्त प्रतिपादित किया।
  • स्थायी आय परिकल्पना सिद्धांत को प्रत्याशित आय परिकल्पना के नाम से भी जाना जाता है। प्रो. कीन्स का मत है कि वर्तमान उपभोग क्रिया का निर्धारण चालू आय द्वारा किया जाता है। प्रो. फीडमैन ने कीन्स की मान्यता का खण्डन करते हुए कहा है कि भविष्य में आय की प्रत्याशा भी उपभोग अधिमान को प्रभावित करती है।
  • पुनः प्रो. मिल्टन फ्रीडमैन का मत है कि "स्थायी आय से तात्पर्य कोई उपभोक्ता इकाई अपनी सम्पत्ति को स्थायी रखते हुए उपभोग पर व्यय कर सकता है।”
  • स्थायी आय से तात्पर्य उपभोग पर व्यय की जाने वाली उस आय से लगाया जाता है जिसका सम्पत्ति की मात्रा पर कोई प्रभाव नहीं होता है।
  • चालू आय स्थायी आय से कम या अधिक हो सकती है। यह अन्तर आय की प्रवृत्ति के कारण होता है।
  • स्थायी उपभोग का तात्पर्य उस मूल्य से लगाया जाता है जिसके अन्तर्गत विचाराधीन अवधि में योजना का निर्माण किया जाता है।
  • स्थायी उपभोग, स्थायी आय और स्थायी औसत उपभोग प्रवृत्ति का गुणनफल है जिसे सूत्र CP = KYp द्वारा व्यक्त किया जाता है।
  • अस्थायी उपभोग के धनात्मक होने की स्थिति में चालू उपभोग इससे अधिक होगा और यदि वह शून्य है तो ये दोनों समान होंगे।
  • उपभोग के आधारभूत मनोवैज्ञानिक नियम का प्रतिपादन कीन्स ने किया।
  • कीन्स का रोजगार सिद्धान्त अल्पकालीन विश्लेषण है।
  • कीन्स के अनुसार दीर्घकाल में हम सब मर जाते हैं।
  • चक्रीय बेरोजगारी विकसित देशों की देन है।
  • कीन्स के अनुसार अति उत्पादन और बेरोजगारी का मुख्य कारण कुल माँग की कमी है। कीन्स का रोजगार सिद्धान्त समष्टिपरक सिद्धान्त है।
  • हेजलिट, हैवरलर, लियोन्टिफ के अनुसार अल्प रोजगार स्थायी साम्य नहीं है। त्वरक प्रेरित विनियोजन से सम्बन्धित है।
  • त्वरक की धारणा अक्सीलियन ने दिया है।
  • सापेक्ष आय परिकल्पना-डूसनबरी
  • MPC + MPS = 1
  • APC + APS = 1
  • ADF = ASF
  • कीन्स संरक्षणवाद से सम्बन्धित है।
  • संरक्षण वाद का सम्बन्ध फ्रेडरिक लिस्ट से है
  • गुणक सिद्धान्त 1931 में आया।
  • गुणक सिद्धान्त का सम्बन्ध कीन्स से है।
  • आय की पिछली थ्योरी सिद्धान्त का प्रणेता डूसनबरी।
  • C: = a + cyd में a स्थिरांक है।
  • उपभोग फलन के प्रमुख सिद्धान्त, निरपेक्ष, सापेक्ष तथा स्थायी आय का सिद्धान्त है।
  • सस्ती एवं सुगम ऋण सुविधायें उपयोग फलन को ऊपर ले जाने में सहायक होती है।
  • शहरीकरण उपभोग प्रवृत्ति को बढ़ाने में सहायक होता है।
  • उपभोग फलन को बढ़ाने में उत्तम सुविधा तथा परिवहन विज्ञापन सहायक है।
  • कीन्स की रुचि माँग प्रेरित स्फीति में अधिक थी।
  • मुद्रा स्फीति का विपरीत प्रभाव निश्चित आय वर्ग पर पड़ता है।
  • भारत का राष्ट्रीय बैंक है आर. बी. आई.।
  • निर्धन की उपभोग प्रवृत्ति अधिक होती है।
  • कीन्स के अनुसार उपभोग फलन में वित्तीय दूरदर्शिता, उद्यम तलरता आदि कारक स्थिर रखते हैं।
  • सामाजिक सुरक्षा विधियाँ उपभोग फलन को दीर्घकाल में बढ़ाती है।
  • प्रो. फ्रीडमैन ने अपने सिद्धांत में स्थायी, अस्थायी तथा आंकलित शब्दों का प्रयोग किया है जो कि भ्रम उत्पन्न करते हैं न कि सिद्धांत को स्पष्ट करते हैं।
  • प्रो. फ्रीडमैन ने अपने सिद्धांत में मानवीय एवं गैर मानवीय सम्पत्ति में भेद नहीं किया है।
  • विचार/सिद्धांत/परिकल्पना  -  अर्थशास्त्री
  • जीवन चक्र परिकल्पना - मोडिल्यानी
  • सापेक्ष आय परिकल्पना - डूसनबरी
  • स्थायी आय परिकल्पना - फ्रीडमैन
  • निरपेक्ष आय परिकल्पना - कीन्स
  • रोजगार गुणक - आर. एफ. कहान
  • उपयोग का मनोवैज्ञानिक सिद्धांत - कीन्स
  • रैचट प्रभाव - डूसनबरी
  • विनियोग एक अल्पकालीन महत्वपूर्ण निर्धारक होता है।
  • कीन्स का मत है कि प्रभावपूर्ण मांग के स्तर पर अर्थव्यवस्था में संतुलन स्थापित होता है, लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि यह सन्तुलन पूर्ण रोजगार संतुलन ही हो।
  • सम्पूर्ण आय का अपने आप में व्यय न हो जाने के कारण आय एवं व्यय के बीच एक अन्तर उत्पन्न हो जाता है।
  • प्रो. से का मत है कि "पूर्ति स्वयं उसकी मांग को उत्पन्न कर लेती है। जिसके कारण अर्थव्यवस्था में अतिउत्पादन एवं बेरोजगारी की स्थापना नहीं हो पाती है।"
  • कीन्स की उपभोग क्रिया से के इस नियम का खण्डन करती है।
  • प्रो. कीन्स के मतानुसार सीमित उपभोग प्रवृत्ति इकाई से कम हो जाने पर सभी अर्जित आय स्वतः व्यय नहीं होती है परिणामस्वरूप बेरोजगारी तथा अतिउत्पादन की स्थिति का निर्माण होता है। मनोवैज्ञानिक उपभोग का नियम आर्थिक नीति में सहायक होता है। कीन्स का यह सिद्धांत पूर्ण रोजगार एवं आर्थिक स्थिरता हेतु आर्थिक नियम बनाने में सहायक सिद्ध होता है।
  • बेरोजगारी की अवस्था में सरकार को प्रभावपूर्ण माँग में वृद्धि करने हेतु ऐसी नीति अपनानी चाहिए जिससे धनी वर्गों के आय निर्धन वर्गों की ओर अन्तरित हो सके।
  • कीन्स द्वारा प्रतिपादित उपभोग प्रवृत्ति सिद्धांत ही व्यापार चक्र के उच्च तथा निम्न मोड़ बिन्दुओं की व्याख्या करने में सफल हुआ है।
  • यह मान्य नियम है कि अर्द्ध विकसित देशों में सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति अधिक होती है। कीन्स का उपभोग सिद्धांत दीर्घकालीन स्थिर मन्दी को स्पष्ट करता है।
  • सामान्य बेरोजगारी की संभावना में कुल आय की वृद्धि होने पर उपभोग व्यय में इतनी वृद्धि नहीं होती जितनी आय में वृद्धि होती है।
  • राष्ट्रीय आय जब अधिक होती है तब मांग में वृद्धि हो जाती है जिसके परिणामस्वरूप उपभोग व्यय भी बढ़ जाता है।
  • उपभोग फलन या उपभोग क्रिया या उपभोग प्रवृत्ति आय एवं उपभोग के मध्य फलनीय संबंध को बताता है।
  • आय का वह भाग जो उपभोग पर व्यय होता है उपभोग व्यय कहा जाता है। यह स्थिर नहीं रहता है।


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    अनुक्रम

  1. अध्याय - 1 समष्टि अर्थशास्त्र का परिचय (Introduction to Macro Economics)
  2. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  3. उत्तरमाला
  4. अध्याय - 2 राष्ट्रीय आय एवं सम्बन्धित समाहार (National Income and Related Aggregates)
  5. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  6. उत्तरमाला
  7. अध्याय - 3 राष्ट्रीय आय लेखांकन एवं कुछ आधारभूत अवधारणाएँ (National Income Accounting and Some Basic Concepts)
  8. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  9. उत्तरमाला
  10. अध्याय - 4 राष्ट्रीय आय मापन की विधियाँ (Methods of National Income Measurement)
  11. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  12. उत्तरमाला
  13. अध्याय - 5 आय का चक्रीय प्रवाह (Circular Flow of Income)
  14. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  15. उत्तरमाला
  16. अध्याय - 6 हरित लेखांकन (Green Accounting)
  17. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  18. उत्तरमाला
  19. अध्याय - 7 रोजगार का प्रतिष्ठित सिद्धान्त (The Classical Theory of Employment)
  20. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  21. उत्तरमाला
  22. अध्याय - 8 कीन्स का रोजगार सिद्धान्त (Keynesian Theory of Employment)
  23. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  24. उत्तरमाला
  25. अध्याय - 9 उपभोग फलन (Consumption Function)
  26. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  27. उत्तरमाला
  28. अध्याय - 10 विनियोग गुणक (Investment Multiplier)
  29. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  30. उत्तरमाला
  31. अध्याय - 11 निवेश एवं निवेश फलन(Investment and Investment Function)
  32. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  33. उत्तरमाला
  34. अध्याय - 12 बचत तथा निवेश साम्य (Saving and Investment Equilibrium)
  35. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  36. उत्तरमाला
  37. अध्याय - 13 त्वरक सिद्धान्त (Principle of Accelerator)
  38. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  39. उत्तरमाला
  40. अध्याय - 14 ब्याज का प्रतिष्ठित, नव-प्रतिष्ठित एवं कीन्सीयन सिद्धान्त (Classical, Neo-classical and Keynesian Theories of Interest)
  41. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  42. उत्तरमाला
  43. अध्याय - 15 ब्याज का आधुनिक सिद्धान्त (IS-LM व्याख्या) Modern Theory of Interest (IS-LM Analysis )
  44. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  45. उत्तरमाला
  46. अध्याय - 16 मुद्रास्फीति की अवधारणा एवं सिद्धान्त (Concept and Theory of Inflation)
  47. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  48. उत्तरमाला
  49. अध्याय - 17 फिलिप वक्र (Philips Curve)
  50. वस्तुनिष्ठ प्रश्न
  51. उत्तरमाला

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